प्रथम टुडे जबलपुर।
पितृपक्ष (श्राद्ध पक्ष) का धार्मिक और पौराणिक महत्व पूरे देश में माना जाता है, लेकिन संस्कारधानी जबलपुर के पास स्थित लम्हेटाघाट को इसकी जन्मभूमि कहा जाता है। मान्यता है कि यहीं नर्मदा तट पर स्थित इंद्र गया से संसार में सबसे पहले पिंडदान और श्राद्ध की शुरुआत हुई थी। आज भी हर साल हजारों श्रद्धालु यहां अपने पितरों की आत्मा की शांति और मोक्ष के लिए पिंडदान करने आते हैं।
कैसे पहुंचे यहां
यहां पहुंचने के लिए आपको पहले तिलवारा जाना पुल के आगेचरगांवा रोड रोड पर जब आप आगे जाते हैं, तो यहां से न्यू भेड़ाघाट के लिए रास्ता जाता है जो छोटी लम्हाटी के आगे जाने पर आपको त्रिशूल भेद का साइन बोर्ड लगा नजर आ जाएगा। वैसे जब आप यहां रह रही ग्रामीणों से इसका रास्ता पूछेंगे तो वह भी आपको त्रिशूल भेद तक पहुंचने में मदद करेंगे।पितृपक्ष से यह दक्षिण भारत से भी लोगों का आगमन होता है
पुराणों में उल्लेख है कि इंद्रदेव ने अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए नर्मदा किनारे गयाजी कुण्ड में पिंडदान किया था। इसी कारण इस स्थान को इंद्र गया कहा जाता है। यहां आज भी ऐरावत हाथी (इंद्र का वाहन) के पदचिह्न मौजूद बताए जाते हैं। मान्यता है कि इन्हीं चिह्नों से इस स्थान की पौराणिकता और महत्ता सिद्ध होती है।
मनु ने भी किया था श्राद्ध
शास्त्रों में वर्णन है कि मानव जाति के प्रथम राजा मनु ने भी इसी स्थान पर अपने पितरों का श्राद्ध किया था। इसी वजह से नर्मदा को श्राद्ध की जननी भी कहा जाता है।
त्रिशूलभेद नागक्षेत्र की मान्यता
लम्हेटाघाट से कुछ दूरी पर स्थित तिलवाराघाट को पुराणों में त्रिशूलभेद नागक्षेत्र कहा गया है। नर्मदा महापुराण में उल्लेख है कि नर्मदा परिक्षेत्र में किया गया श्राद्ध गंगाजी के गया क्षेत्र में किए गए श्राद्ध से भी श्रेष्ठ और फलदायी माना जाता है।
कुम्भेश्वर तीर्थ : जहां कटते हैं संकट
लम्हेटाघाट में ही एक और महत्वपूर्ण स्थल कुम्भेश्वर तीर्थ है। मान्यता है कि यहां भगवान श्रीराम, लक्ष्मण और हनुमान ने ब्रह्महत्या व शिवदोष से मुक्ति पाने के लिए वर्षों तक तप किया था। इस तीर्थ पर स्थित मंदिर में आज भी एक जिलहरी (जल निकासी का पात्र) पर दो शिवलिंग विराजमान हैं, जिन्हें दिव्य और चमत्कारी माना जाता है।
नर्मदा के प्रकट होने से मिला पितरों को मोक्ष
स्कंद पुराण के रेवाखंड में उल्लेख मिलता है कि प्रारंभिक युगों में न तो देवता, न दानव और न ही ऋषि-मुनि श्राद्ध के महत्व को जानते थे। परिणामस्वरूप उनके पितरों की आत्माएं धरती पर भटकती रहती थीं। लेकिन जब सतयुग के आरंभ में मां नर्मदा प्रकट हुईं, तभी पहली बार पितरों ने स्वयं श्राद्ध किया और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई।
कब से कब तक होता है श्राद्ध
धार्मिक मान्यता के अनुसार सूर्य के कन्या राशि में प्रवेश करने पर आश्विन कृष्ण पक्ष की पूर्णिमा से अमावस्या तक श्राद्ध पक्ष (पितृपक्ष) मनाया जाता है। इसी अवधि को महालय भी कहा जाता है, जब लोग अपने पितरों को तर्पण, पिंडदान और ब्राह्मण भोजन के माध्यम से स्मरण करते हैं।
पूरे देश के आस्था का केंद्र है लमहेटा
इस प्रकार, जबलपुर का लम्हेटाघाट और इंद्र गया न केवल स्थानीय आस्था का केंद्र है, बल्कि पूरे देश में पितृपक्ष की परंपरा की जननी भी माना जाता है। यहां की धार्मिक महत्ता और नर्मदा तट का प्राकृतिक सौंदर्य श्रद्धालुओं को अपनी ओर खींचता है।
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