एम. एम. शर्मा | प्रथम टुडे, पन्ना( ब्यूरो )
वन विभाग की बहुप्रचारित कैम्पा योजना का उद्देश्य था – जंगलों को फिर से हरा-भरा बनाना, पर्यावरण को संजीवनी देना और स्थानीय मजदूरों को रोजगार देना। लेकिन पन्ना जिले के सलेहा रेंज के हरदुआ बीट में जो कुछ चल रहा है, वह इस योजना की जड़ों को ही खोखला कर रहा है।
जहां हजारों पौधे रोपे जाने की बात है, वहां जमीनी हकीकत यह है कि मजदूरों को तयशुदा मजदूरी तक नहीं दी जा रही। सरकारी रिकॉर्ड में एक रेट, और मजदूरों की जेब में उसका आधा भी नहीं। रही-सही कसर पूरी हो जाती है जब विभागीय कर्मचारी मजदूरों के नाम पर फर्जी खाते खुलवाकर पैसे ट्रांसफर कराते हैं और फिर नकद में ‘कटौती’ करके भुगतान करते हैं। यह सिर्फ भ्रष्टाचार नहीं, यह उन गरीब मजदूरों की मेहनत का अपमान है जो तपती दोपहरी में जंगल को हरियाली देने का सपना लिए पसीना बहा रहे हैं।
सवाल सिर्फ पैसों तक सीमित नहीं है। पौधारोपण के पहले साफ-सफाई, लेंटाना हटाने जैसे जरूरी कार्यों को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है। जहां सिर्फ दिखावटी गड्ढे खोदकर पौधे रोप दिए गए हैं, वहां पौधों की जीवित रहने की उम्मीद एक धोखा है। और इसमें भी हैरानी की बात यह है कि जिन वाहनों से यह कार्य करवाया जा रहा है, वे खुद विभागीय अधिकारियों के हैं – यानी योजना में बिल भी अपनों के, भुगतान भी अपनों को।
सबसे चिंताजनक बात है – इन गड़बड़ियों की संरक्षणशील व्यवस्था। आरोप है कि बीट गार्ड और एसडीओ निगम की आपसी सांठगांठ से यह पूरा खेल चल रहा है। ऐसी कई नर्सरियों में भी यही कहानी दोहराई जा रही है जहां पौधारोपण और खाकरी निर्माण के नाम पर खानापूर्ति की जा रही है।
हालांकि वन मंडल अधिकारी अनुपम शर्मा जैसे कुछ ईमानदार अफसर उम्मीद की किरण हैं, जो शिकायतों पर तत्परता से कार्रवाई करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या अकेला एक अधिकारी इस पूरे तंत्र को दुरुस्त कर पाएगा, जिसमें नीचे से ऊपर तक हर स्तर पर मिलिभगत का जाल बिछा हुआ है?
सरकार को चाहिए कि वह कैम्पा योजना की स्वतंत्र जांच कराए, सिर्फ कागजी रिपोर्टों से नहीं बल्कि मौके पर जाकर असलियत को देखे। क्योंकि अगर ये पौधे जिंदा नहीं बचे, तो जंगल नहीं बचेंगे। और अगर जंगल नहीं बचे, तो कैम्पा योजना भी सिर्फ सरकारी कागजों में हरा दिखेगा – जमीन पर नहीं।
📌 सारांश में सवाल यही है:
"क्या कैम्पा अब एक हरित योजना है, या हरे-हरे नोटों की खेती?"
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