पत्रकारिता के मैदान में निर्भीकता की मिसाल: गंगा पाठक की कलम ने कई
सच्चाइयों को उजागर किय
प्रथम टुडे संपादकीय भारतीय पत्रकारिता का इतिहास उन लोगों से भरा पड़ा है जिन्होंने सत्ता के समक्ष न झुकने का रास्ता चुना – जिन्होंने कलम को बिकने नहीं दिया, डर से समझौता नहीं किया और सवाल पूछने की अपनी भूमिका को अंतिम सांस तक निभाया। जबलपुर के वरिष्ठ पत्रकार गंगा पाठक इन्हीं चुनिंदा पत्रकारों की श्रेणी में आते हैं, जिन्होंने न केवल पत्रकारिता को जिम्मेदारी से निभाया, बल्कि पत्रकारिता को एक सामाजिक दायित्व मानते हुए युवाओं को दिशा देने का भी कार्य किया।
हाल ही में उनके खिलाफ दर्ज एक कथित ज़मीन घोटाले के मामले में सुप्रीम कोर्ट से उन्हें जो अंतरिम राहत मिली, वह महज़ कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा नहीं है – यह एक प्रतीकात्मक फैसला है, जो यह जताता है कि यदि सत्ता, पुलिस और प्रभावशाली तत्वों की तिकड़ी एक पत्रकार को घेरने का प्रयास करे, तो देश की न्यायपालिका अब भी सच के साथ खड़ी हो सकती है।
गंगा पाठक : जबलपुर की पत्रकारिता का साहसिक स्वर
गंगा पाठक केवल एक पत्रकार नहीं हैं – वे एक आंदोलन की तरह हैं। ऐसे दौर में जब पत्रकारिता का एक बड़ा हिस्सा ‘प्रेस रिलीज़’ और ‘पेड न्यूज’ तक सिमट गया है, गंगा पाठक जैसे लोग यह याद दिलाते हैं कि पत्रकार का मूल कर्तव्य सत्ता से सवाल करना, जनहित में आवाज उठाना और व्यवस्था में पनप रहे भ्रष्टाचार को उजागर करना है।
उन्होंने जबलपुर के अंदर अवैध कॉलोनियों, भू-माफियाओं, शहरी प्रशासन की खामियों, और लोक सेवकों की लापरवाहियों को निडरता से उजागर किया। यही नहीं, वे पत्रकारिता में आने वाले युवाओं के लिए एक मार्गदर्शक भी बने। अपने व्यक्तिगत संसाधनों से उन्होंने कई युवाओं को रिपोर्टिंग, तहकीकात और मीडिया की बारीकियों को सिखाया।
क्या यह सिर्फ एक ज़मीन का मामला है?
जिस ‘आदिवासी ज़मीन विवाद’ में गंगा पाठक और उनकी पत्नी को आरोपी बनाया गया, उसमें दर्ज बिंदुओं से कहीं ज्यादा प्रशासन की मंशा पर सवाल उठते हैं। वे केवल क्रेता थे, यह तथ्य भी स्पष्ट है, और अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना कि प्रथम दृष्टया कोई आपराधिक मंशा नजर नहीं आती।
यह सवाल इसलिए जरूरी है क्योंकि जिन लोगों ने अपने रिपोर्टिंग के जरिये कई रसूखदारों को बेनकाब किया हो, उनके खिलाफ अचानक इस प्रकार की कार्रवाई होना, संदेह पैदा करता है – क्या पत्रकारिता अब सत्ता के लिए असहज सवाल बनती जा रही है?
पत्रकारिता बनाम तंत्र – एक अंतहीन संघर्ष
गंगा पाठक की गिरफ्तारी की कोशिशें यह भी उजागर करती हैं कि जब पत्रकारिता, सत्ता की चापलूसी छोड़कर सच्चाई से जुड़ती है, तो वह व्यवस्था के लिए खतरा बन जाती है। यही वजह है कि पत्रकारों पर फर्जी मुकदमे, पुलिसिया दबिशें, डराने की कोशिशें और चरित्रहनन अभियान आम होते जा रहे हैं।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह संदेश दिया है कि न्याय का पलड़ा अब भी सच्चाई की ओर झुकता है, अगर तथ्य मजबूत हों और नीयत साफ हो। कोर्ट द्वारा गिरफ्तारी पर लगाई गई रोक और राज्य सरकार को भेजा गया नोटिस इस पूरे प्रकरण की गंभीरता को दर्शाता है।
गंगा पाठक: पत्रकारिता के एक युग की आवाज
यह संपादकीय अधूरा रहेगा यदि हम गंगा पाठक के निजी योगदान का उल्लेख न करें। वे उन गिने-चुने पत्रकारों में से हैं जिन्होंने कभी मंच नहीं मांगा, लेकिन हर पीड़ित की आवाज बने। उन्होंने गांवों से लेकर शहर के प्रशासनिक गलियारों तक फैले भ्रष्टाचार को उजागर किया, वो भी बिना किसी नेटवर्किंग, गॉडफादर या संस्थागत समर्थन के।
उनकी रिपोर्टिंग ने यह साबित किया कि पत्रकारिता केवल कैमरे, माइक और शोशा नहीं होती – पत्रकारिता अंतःकरण की आवाज होती है, जो तब भी उठती है जब सब चुप हो जाते हैं।
आज की पीढ़ी के लिए प्रेरणा
युवाओं के लिए गंगा पाठक की पत्रकारिता एक जीवंत पाठशाला है – उन्होंने केवल रिपोर्ट नहीं की, उन्होंने यह सिखाया कि पत्रकारिता में नैतिकता, साहस और ज़मीन से जुड़ाव कितना जरूरी है। वह स्वयं एक उदाहरण हैं कि व्यक्तिगत संघर्षों, धमकियों और दबावों के बावजूद यदि पत्रकार अपने मूल कर्तव्य पर अडिग रहे, तो न्याय भले ही देर से मिले – मगर मिलता जरूर है।
एक सवाल हम सबके लिए
इस संपादकीय का अंत एक सवाल के साथ किया जाना चाहिए – क्या हम एक ऐसा समाज बना रहे हैं, जहाँ पत्रकार को सत्य बोलने पर जेल का डर सताए? या हम उस समाज के निर्माण में सहभागी होंगे, जहाँ पत्रकारों को न्याय, सम्मान और सुरक्षा मिले?
गंगा पाठक को मिली राहत एक व्यक्ति की जीत नहीं, यह पत्रकारिता की आत्मा की जीत है। अब यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि इस आत्मा को जिंदा रखें।
अनुराग दिक्षित प्रथम टुडे
पत्रकारिता केवल खबरों का संकलन नहीं, बल्कि समाज की आत्मा की रक्षा का कार्य है। इस संपादकीय के माध्यम से हमने कोशिश की है कि सच्चाई और न्याय के साथ खड़े पत्रकारों को उचित सम्मान और आवाज मिले। गंगा पाठक जैसे लोग पत्रकारिता की रीढ़ हैं – और हम उनके संघर्ष के साथ हैं।
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