अनुराग दिक्षित संपादक प्रथम टुडे
भारत जैसी विविधताओं से संबंधित देश में लोकतंत्र की नींव "सबका साथ, सबका विकास" के विचार पर टिकी होनी चाहिए, लेकिन आज यह जाति और धर्म की राजनीति
से हिलने लगी है। जब राजनीतिक संवाद विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विचारधारा से भटकर जाति और सांप्रदायिक विचारधारा पर चर्चा हो जाए, तो यह किसी भी लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। दुर्भाग्य से, यह खतरा अब भारतीय लोकतंत्र के दरवाजे पर नहीं जा रहा है, बल्कि अंदर प्रवेश कर चुका है।
प्रथम टुडे - भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत उसकी विविधता है - भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति - और इन सबके बीच एक गहरी एकता है। लेकिन आज यही विविधता कुछ स्वार्थी तत्वों की राजनीति का हथियार बन गई है। जाति और धर्म के आधार पर समाज पर प्रकाश डाला गया है, हमारे संविधान की मूल भावना और लोकतांत्रिक वर्गीकरण पर सीधा हमला किया गया है।
आज जब देश को विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और पर्यावरण जैसे आशीर्वाद पर ईमानदार बहस की बर्बादी है, तब हमारे राजनीतिक मंच पर जातिगत अनुपात और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की आवश्यकता है। चुनाव आते ही जाति की गिनती और धर्म की गणना शुरू हो जाती है - कौन सा समुदाय किसे वोट देगा, किस जाति का उम्मीदवार कहां से खड़ा होगा। परिणाम यह होता है कि देश के स्टूडियो, घोषणापत्र और वादे जातिगत लक्ष्य और धार्मिक धारणाओं के उद्योग-गिर्द बुने जाते हैं, विकास को पीछे छोड़ दिया जाता है।
सत्य में बने रहने की लालसा ने राजनीति को इतना हद तक सीमित कर दिया है कि कुछ नेताओं ने जातिवादी और सांप्रदायिक संप्रदाय को ही वोट मांगने का साधन बना लिया है। डिजिटल जैसे गंभीर सामाजिक-सुधार के उपकरणों को भी अब वोट बैंक बनाने की कला में पेश किया गया है। जिन उत्पादों को प्लास्टिक बनाया गया था, उन्हें और अधिक बैग होने का प्रमाण दिया गया है ताकि वे विशेष दर्जे को पा सकें। यह व्यवस्था देश को आगे नहीं ले जाती, बल्कि पीछे खींचती है।
धर्म के नाम पर विशेषता, या किसी वर्ग के लिए विशेष संरक्षण, स्वभाव के रूप से अन्य संप्रदायों में असंतोष और विद्वेष को जन्म दिया जाता है। हमारी व्यवस्था में ऐसी राजनीतिक सोच हावी होती जा रही है जिसमें एक धर्म या जाति के लिए नीति बनाकर बाकी समाज की भावनाओं को नजरअंदाज किया जाता है। इससे सामाजिक समरसता टूटती है और लोकतंत्र ख़राब होता है।
वास्तविक चुनौती अब नेताओं से अधिकांश आम नागरिकों के विवेक की है। जब तक हम कलाकार अपने-अपने धर्म और जातियों की दीवारों में कैद रहेंगे, तब तक राजनीति मित्रता खांचों में बंटी रहेंगे। लोकतंत्र तब मजबूत होगा जब नागरिक और जाति की राजनीति को कमजोर कर विकास, शिक्षा, रोज़गार और समान अवसरों की बात की जाएगी।
आज की शुरुआत यह है कि हम संविधान के मूल मूल्य - असंबद्धता, स्वतंत्रता, न्याय और स्वतंत्रता - को फिर से स्वीकार करते हैं और उन्हें अपने व्यवहार में रखते हैं। धर्म और जाति पर आधारित अपमान और हिंसा से न केवल समाज की छवि बनती है बल्कि देश की छवि भी धूमिल होती है। यह देश सभी का है - हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, दलित, दलित, सामान्य - और सभी की जिम्मेदारी है कि वे एकजुट होकर उसे संवारें।
भारत को अगर एक डेमोक्रेट राष्ट्र बनाया गया है तो जाति और धर्म की राजनीति से ऊपर के स्मारकों का वक्ता अब आ गया है। हमारा लोकतंत्र हमें वोट देने का अधिकार देता है, साथ ही यह भी दायित्व देता है कि हम विवेक का प्रयोग करें, न कि किसी भी प्रकार का ज्ञान।
देश को अब नेतृत्व की नहीं, दृष्टिकोण की जरूरत है - एक ऐसी नजर की जो समावेशी हो, संदेश हो और संविधान में आस्था हो। अगर हम सब मिलकर इस दिशा में प्रयास करें, तो वह दिन दूर नहीं जब अखंड भारत 'सबका भारत' बन जाए - एक अखंड, आत्मनिर्भर और अनमोल भारत।
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