प्रथम टुडेजबलपुर।
संस्कारधानी जबलपुर की ऐतिहासिक गोविंदगंज रामलीला इस साल अपने 161वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। वर्ष 1865 से शुरू हुई यह परंपरा आज भी उसी श्रद्धा और सात्विकता के साथ निभाई जा रही है। खास बात यह है कि इस रामलीला का मंचन कभी रुका नहीं। मुश्किल हालातों में भी इसकी निरंतरता बनाए रखी गई।
गोविंदगंज रामलीला की शुरुआत मिलौनीगंज के डल्लन महाराज की प्रेरणा और रज्जू महाराज की अगुवाई में हुई थी। मिर्जापुर के व्यापारी लल्लामन मोर और क्षेत्र के अन्य प्रतिष्ठित लोगों ने मिलकर इस परंपरा को स्थापित किया। पहले इसका मंचन मिट्टी तेल की चिमनी और पेट्रोमैक्स की रोशनी में हुआ, जबकि वर्ष 1932 में पहली बार बल्ब की रोशनी में रामलीला का मंचन किया गया।
समिति की मान्यता है कि मुकुट पूजन से ही भगवान श्रीराम, माता सीता, लक्ष्मण और हनुमान का आह्वान होता है। मुकुट धारण करने के बाद साधारण पात्र भी भगवान स्वरूप माने जाते हैं। यही वजह है कि रामलीला की शुरुआत हमेशा मुकुट पूजन से होती है। मंगलवार शाम को यह परंपरा निभाई गई और शोभायात्रा के साथ 161वीं रामलीला का शुभारंभ हुआ।
रामलीला की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें किसी भी वाद्ययंत्र का इस्तेमाल नहीं किया जाता। पात्र पूरी तरह सात्विक रहते हैं और कई बार मंचन की अवधि में गृहत्याग भी कर देते हैं। इस दौरान क्षेत्र का वातावरण भक्तिमय हो उठता है। दशकों तक लोग बोरियां और दरी बिछाकर मंचन का आनंद लेने बैठते रहे हैं।
इतिहास में कुछ अवसर ऐसे भी आए जब मंचन पर संकट आया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1939 में अंग्रेजों ने सार्वजनिक आयोजनों पर रोक लगाई थी, वहीं 1964-65 के भारत-पाक युद्ध के समय भी आयोजन प्रभावित हुआ। इसके बावजूद समिति ने हर बार किसी न किसी रूप में रामलीला पूरी की। एक बार भारी बारिश के कारण मंचन कमरे के भीतर किया गया, पर परंपरा टूटी नहीं।
वर्तमान में समिति की बागडोर पूर्व मंत्री पंडित ओंकार प्रसाद तिवारी के पुत्र अनिल तिवारी के हाथों में है। उनके साथ समिति के सदस्य इस विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। इस बार मुकुट पूजन शोभायात्रा की शुरुआत महापौर जगत बहादुर सिंह अन्नू ने पूजन-अर्चन के साथ की। परंपरा के अनुसार दशहरे के दिन यह रामलीला संपन्न होगी।

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