प्रथम टुडे बलपुर।
कांग्रेस की राजनीति में जबलपुर एक बार फिर सुर्खियों में है। शहर कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सौरभ 'नाटी' शर्मा को दोबारा कमान सौंप दी गई है, जबकि ग्रामीण कांग्रेस की ज़िम्मेदारी अब पूर्व विधायक संजय यादव को दी गई है। इस बदलाव के साथ ही कांग्रेस ने शहरी क्षेत्र में निरंतरता और ग्रामीण क्षेत्र में ताजगी का संदेश देने की कोशिश की है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या गुटबाज़ी के पुराने घाव अब भी पार्टी को दर्द देंगे?
शहर कांग्रेस – दोबारा वही कप्तान, वही पुराना सवाल
पिछली बार जब सौरभ नाटी शर्मा को शहर कांग्रेस की कमान मिली थी, तो पार्टी अंदरूनी खींचतान के चलते कार्यकारिणी गठन तक नहीं कर पाई थी। पूरे कार्यकाल में यह सवाल हवा में तैरता रहा कि आखिर जब अध्यक्ष नियुक्त हो गया है तो टीम क्यों नहीं बन पा रही? सूत्रों की मानें तो महाकौशल क्षेत्र के एक ताकतवर नेता की ‘मर्ज़ी’ के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, और शायद यही वजह रही कि कार्यकारिणी घोषित करना नामुमकिन साबित हुआ।
कार्यक्रमों में उपस्थिति, सवालों के घेरे में
कांग्रेस के बड़े कार्यक्रमों में कार्यकर्ताओं की कमज़ोर उपस्थिति और गुटबाज़ी की झलकियां किसी से छिपी नहीं हैं। चाहे वो शहीद स्मारक पर हुआ आयोजन हो या कलेक्ट्रेट में कांग्रेस का राष्ट्रीय स्तर का ज्ञापन कार्यक्रम – हर बार कांग्रेस की अंदरूनी टूट सामने आई है।
एक उदाहरण कलेक्ट्रेट में देखने को मिला, जब शहर अध्यक्ष अपने चंद समर्थकों के साथ ज्ञापन देने पहुंचे, वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ कैंट कार्यकर्ताओं को पुलिस गिरफ्तार कर ले गई। लेकिन हैरानी की बात यह रही कि अध्यक्ष और उनके साथ मौजूद किसी नेता ने इस पर न तो विरोध दर्ज कराया, न ही बाद में कोई ज़िक्र किया। यह चुप्पी खुद कांग्रेस की अंदरूनी खेमेबाज़ी को उजागर कर रही थी।
प्रदेश नेतृत्व की चुप्पी भी सवालों में
पार्टी की यह हालत तब और चिंताजनक हो जाती है, जब प्रदेश कांग्रेस कमेटी भी इन घटनाओं पर कोई संज्ञान नहीं लेती। न तो गुटबाज़ी की जांच होती है, और न ही कार्यकारिणी गठन में तेजी लाई जाती है। यह लापरवाही कांग्रेस की साख को शहर में लगातार कमजोर कर रही है।
अब संजय यादव की परीक्षा शुरू
ग्रामीण कांग्रेस की ज़िम्मेदारी अब पूर्व विधायक संजय यादव को सौंपी गई है। डॉ. नीलेश जैन की जगह लेना कोई आसान काम नहीं होगा, खासकर तब जब ग्रामीण क्षेत्र में कांग्रेस की पकड़ पहले से ही ढीली होती जा रही है। अब देखना होगा कि संजय यादव कितनी जल्दी अपनी टीम तैयार कर पाते हैं और संगठन को किस दिशा में ले जाते हैं।
सबसे बड़ा सवाल: क्या दोबारा बिना ‘बारात का दूल्हा’ ही रह जाएगा अध्यक्ष पद?
जैसे पिछली बार सौरभ शर्मा कार्यकारिणी घोषित नहीं कर पाए, क्या इस बार भी वही कहानी दोहराई जाएगी? या फिर वह खुद को एक प्रभावी संगठनकर्ता साबित करेंगे?
संजय यादव भी इस अग्निपरीक्षा से अछूते नहीं हैं। उन्हें भी दिखाना होगा कि वह संगठन को खड़ा कर सकते हैं और गुटबाज़ी से ऊपर उठकर एकजुटता की मिसाल पेश कर सकते हैं।
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