प्रथम टुडे जबलपुर। स्वर्गीय कमल नारायण दीक्षित एक ऐसा नाम हैं, जो ईमानदारी, संघर्ष और स्वाभिमान के प्रतीक रहे। एक सामान्य परिवार में जन्म लेकर उन्होंने न सिर्फ खुद को स्थापित किया बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा बन गए। मेरे पिताजी का जीवन इस बात का उदाहरण है कि अगर कोई व्यक्ति ठान ले, तो किसी भी परिस्थिति को पार कर सकता है।
नैनपुर जैसे छोटे से कस्बे में बचपन बिताने वाले मेरे पिताजी ने बहुत कम उम्र में ही सपना देख लिया था – सिविल इंजीनियर बनने का। वे अक्सर बताया करते थे कि कैसे वे अपने हाथ से पतंग बनाते थे और सड़क किनारे टेबल लगाकर उन्हें बेचते थे। एक दिन नगर पालिका का इंजीनियर वहां आया और लोगों ने बताया कि वह सिविल इंजीनियर है। बस उसी दिन उन्होंने तय कर लिया कि उन्हें भी यही बनना है।
पढ़ाई पूरी कर जब वे जबलपुर आए तो सिर्फ एक पेटी और गिने-चुने कपड़े थे। पॉलिटेक्निक कॉलेज में सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया। आर्थिक कठिनाइयों का सामना करते हुए उन्होंने हॉस्टल में रहकर पढ़ाई की और होटल जैक्सन में ड्रम बजाकर अपने खर्च निकालते रहे। कॉलेज में 'पजामा छाप' कहे जाने वाले मेरे पिताजी ने उसी कॉलेज में छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव जीता और 'जबलपुर कुमार' का खिताब भी हासिल किया। उन्होंने कॉलेज का जिम भी जॉइन किया और पहली बार पेंट सिलवाई। वह भावनात्मक पल, जब वे रात में उठकर अपनी नई पैंट को छूते थे, आज भी याद आता है।
मेरे पिताजी का पेशेवर जीवन भी सिद्धांतों से भरा रहा। कृषि कॉलेज में ओवरसीयर पद पर रहते हुए उन्होंने एक ठेकेदार द्वारा रिश्वत देने की कोशिश को सख्ती से नकार दिया। जब विभागीय दबाव बढ़ा, तो बिना किसी समझौते के इस्तीफा देना स्वीकार किया। यही ठेकेदार जब इरिगेशन विभाग में पुल निर्माण का ठेका लेकर आया, और पिताजी उस परियोजना के प्रभारी बने, तब भी उन्होंने वही ईमानदारी दिखाई। ठेकेदार की अनियमितता देखकर उन्होंने वहां से भी इस्तीफा दे दिया।
बाद में उन्होंने ऑर्डिनेंस फैक्ट्री खमरिया में सेवा दी और वहीं से सेवानिवृत्त हुए। मेरे पिताजी हमेशा कहा करते थे –
"स्वाभिमान के साथ जियो, कोई तुम्हें हरा नहीं सकेगा। ईमानदारी से काम करो, कष्ट आएंगे लेकिन कट जाएंगे।"
तीन भाइयों में सबसे छोटे मेरे पिताजी के बड़े भाई रेलवे में डीज़ल इंजन चलाते थे और मंझले चाचा असिस्टेंट स्टेशन मास्टर पद से रिटायर हुए। हमारे दादा श्री नर्मदा प्रसाद दीक्षित रेलवे में जल सेवा का कार्य करते थे। इस पृष्ठभूमि से निकलकर मेरे पिताजी ने जो ऊंचाइयां छुईं, वह सिर्फ मेहनत, आत्मबल और अपने मूल्यों की वजह से संभव हुआ।
आज जब मैं पीछे देखता हूं, तो लगता है कि मैं शायद उनके बताए हर आदर्श पर पूरी तरह खरा नहीं उतर पाया, लेकिन उनके जीवन से मुझे आज भी मार्गदर्शन मिलता है। उनका जीवन एक ऐसी विरासत है, जिसे शब्दों में बांधना कठिन है।
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